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गुरु रंधावा समन: 'सिर्रा' के बोलों पर समराला कोर्ट में मामला, ‘गुर्ती’ पर विवाद ने पकड़ी तूल

के द्वारा प्रकाशित किया गया Aashish Malethia    पर 30 अग॰ 2025    टिप्पणि(12)
गुरु रंधावा समन: 'सिर्रा' के बोलों पर समराला कोर्ट में मामला, ‘गुर्ती’ पर विवाद ने पकड़ी तूल

मामला क्या है: एक लाइन से उठी अदालत तक बात

पंजाबी पॉप के बड़े नाम गुरु रंधावा को उनके नए ट्रैक ‘सिर्रा’ के एक बोल ने कोर्ट तक पहुंचा दिया है। समराला (लुधियाना) की अदालत ने 2 सितंबर 2025 को पेशी के लिए समन जारी किया है। यह कार्रवाई एक निजी शिकायत पर हुई है, जिसमें आरोप है कि गाने के बोल ड्रग्स संस्कृति को बढ़ावा देते हैं और सिख-संस्कृति की पवित्र परंपरा ‘गुर्ती’ का अपमान करते हैं।

शिकायतकर्ता राजदीप सिंह मान, समराला निवासी, ने उस पंक्ति पर आपत्ति जताई जो अनुवाद में कहती है—“हम जाटों के बेटे हैं, जन्म के समय हमें पहली खुराक में अफीम मिली।” पंजाबी लाइन “जमिया नूं गुड्ढी ‘च मिलदी अफीम ऐ” को खास तौर पर आपत्तिजनक बताया गया है। शिकायत के मुताबिक यह संकेत देता है कि नवजात को अफीम दी जाती है, जो न सिर्फ कानून के खिलाफ है बल्कि समाज में गलत संदेश देता है।

मामला उप-मंडलीय न्यायिक मजिस्ट्रेट राजिंदर सिंह की अदालत में दायर है। अदालत ने भारतीय नगरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 223 के तहत शिकायत की प्रारंभिक जांच के लिए समन जारी किया है। रंधावा को व्यक्तिगत रूप से या अपने वकील के माध्यम से पेश होना होगा। ध्यान रहे, BNSS के तहत इस चरण में अदालत सिर्फ जांच करती है कि क्या शिकायत में आगे बढ़ने लायक सामग्री है—यह दोष तय करने का मंच नहीं है।

शिकायत में सिर्फ सिंगर ही नहीं, कई बड़े ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को भी पक्षकार बनाया गया है—Apple Music, YouTube, Amazon Music, Instagram, Spotify India, Warner Music India और अन्य। तर्क यह है कि ये मंच विवादित सामग्री की मेजबानी और प्रसार करते हैं। डिजिटल दुनिया में गानों की तेजी से पहुंच को देखते हुए प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी पर भी सवाल उठे हैं।

दिलचस्प है कि विरोध के बीच ‘सिर्रा’ की लोकप्रियता बनी हुई है। यूट्यूब पर इसके 60 मिलियन से ज्यादा व्यू आ चुके हैं। यही विरोधाभास—उच्च व्यूअरशिप और तीखी आपत्ति—इस मामले को बड़ा बनाता है।

गुरु रंधावा, जिनका पूरा नाम गुरशरणजोत सिंह रंधावा है, पंजाबी, भांगड़ा, इंडी-पॉप और बॉलीवुड के मेल से अपनी पहचान बना चुके हैं। ‘लाहौर’, ‘हाई रेटेड गबरू’ और पिटबुल के साथ ‘स्लोली स्लोली’ जैसे हिट्स ने उन्हें अंतरराष्ट्रीय चार्ट्स तक पहुंचाया। ऐसे में ‘सिर्रा’ पर विवाद सिर्फ एक गीत की बहस नहीं, इंडस्ट्री-स्तर पर एक संकेत की तरह देखा जा रहा है।

शिकायतकर्ता की ओर से एडवोकेट गुर्बीर सिंह ढिल्लों का कहना है कि गाने के बोल अपमानजनक हैं और ड्रग्स को ग्लोरिफाई करते हैं। उनका तर्क है कि ‘गुर्ती’—जहां परिवार का सबसे बुजुर्ग सदस्य नवजात को प्रतीकात्मक रूप से मिठास का स्वाद चखाता है—सम्मान और पवित्रता की परंपरा है, जिसे अफीम से जोड़ना गलत और आहत करने वाला है।

अब सवाल उठता है: क्या यह मामला सिर्फ बोलों की व्याख्या का है, या सच में समाज पर हानिकारक असर का? अदालत इसी परख से शुरू करेगी—इरादा, संदर्भ और असर।

कला की आज़ादी बनाम सांस्कृतिक संवेदनशीलता: रेखा कहाँ खिंचे?

कला की आज़ादी बनाम सांस्कृतिक संवेदनशीलता: रेखा कहाँ खिंचे?

पंजाब में ड्रग्स पर बातचीत संवेदनशील है। परिवारों की चिंताएँ, युवाओं पर असर और पॉप कल्चर की भाषा—ये सब साथ आते हैं। जब कोई लोकप्रिय गायक किसी बोल में अफीम का जिक्र करता है, तो लोग सिर्फ शब्द नहीं पढ़ते—वे उसकी सामाजिक ध्वनि सुनते हैं। शिकायत यहीं से ताकत लेती है कि बड़े पैमाने पर सुना जाने वाला संगीत युवाओं के व्यवहार और सोच पर असर डालता है।

दूसरी तरफ, कलाकार अक्सर कहते हैं कि गीत कहानी बताते हैं—वे हर बात का समर्थन नहीं, बल्कि किसी कैरेक्टर, किस्से या रियलिटी की परछाईं होते हैं। कानून भी इसी महीन रेखा को देखता है: क्या बोल सीधे तौर पर अवैध चीज़ को बढ़ावा दे रहे हैं, या वे एक सांस्कृतिक/कथात्मक संदर्भ में आए? अदालतें आमतौर पर संदर्भ, इरादा, और संभावित प्रभाव—तीनों परखी हुई कसौटियाँ लगाती हैं।

‘गुर्ती’ पर लौटें तो सिख परंपरा में इसे भावनात्मक रूप से बहुत साफ और पवित्र माना जाता है। परिवार के बुजुर्ग द्वारा नवजात को मिठास का प्रतीकात्मक स्वाद—आशीर्वाद की तरह। शिकायत का कहना है कि अफीम का उल्लेख इस पवित्रता को गंदा करता है। समर्थक पक्ष यह भी जोड़ते हैं कि अगर किसी गीत में गलत सांस्कृतिक चित्रण जम गया, तो वह पीढ़ियों तक छवियाँ गढ़ता है।

कानूनी फ्रेमवर्क में, BNSS का यह शुरुआती चरण शिकायत की जांच की मंजूरी जैसा है—इसे आप ‘फिल्टर’ समझ लें। अगर अदालत को लगता है कि मामला सुनवाई लायक है, तो आगे के कदम—साक्ष्य, गवाह, गीत के बोलों की आधिकारिक प्रतिलिपि, संदर्भ की जांच—सब शुरू होते हैं। इस बीच, प्लेटफॉर्म्स की जिम्मेदारी भी सुर्खियों में रहती है। सूचना प्रौद्योगिकी नियमों के तहत इंटरमीडियरीज़ से अपेक्षा है कि वे शिकायत मिलने पर उचित प्रक्रिया अपनाएँ—रिव्यू करें, ज़रूरत हो तो आयु-प्रतिबंध, चेतावनी, या अस्थायी हटाने जैसे कदम लें।

यह कोई पहला मौका नहीं जब पंजाबी पॉप के बोलों पर सवाल उठा हो। इससे पहले हनी सिंह और करण औजला जैसे कलाकारों से कुछ गीतों की भाषा और संदर्भ पर स्पष्टीकरण मांगा गया था। सिद्धू मूसेवाला के कई ट्रैक्स पर भी हिंसा और बंदूक संस्कृति को लेकर विवाद हुए। हर बार बहस वहीं लौटती है—कला की आज़ादी की हद क्या है, और समुदाय की गरिमा कहां से शुरू होती है।

डिजिटल इकोसिस्टम ने दांव बढ़ा दिए हैं। एक गाना रिलीज होते ही देश नहीं, दुनिया भर में फैल जाता है। एल्गोरिद्म उन लाइनों को भी ट्रेंड करा देते हैं जो विवाद पैदा करती हैं। यह पहुंच कलाकारों को बड़ा मंच देती है, लेकिन जवाबदेही भी उतनी ही बड़ी हो जाती है।

उद्योग के लिए यह पल सीख का हो सकता है। लेबल्स—जैसे वार्नर म्यूज़िक इंडिया—और आर्टिस्ट मैनेजर्स अब अक्सर रिलीज से पहले लीगल और सेंसिटिविटी रिव्यू कराते हैं। फिर भी स्लैंग, रफ़-टफ इमेज और स्थानीय मुहावरों का इस्तेमाल कभी-कभी सीमा लांघ देता है। प्रोडक्शन डेस्क पर एक ‘रीड फ्लैग’ सिस्टम—जहां सांस्कृतिक संदर्भ वाले शब्दों को दोबारा परखा जाए—विवादों को शुरुआती चरण में रोक सकता है।

प्लेटफॉर्म्स की बात करें तो उनकी चुनौती सबसे अलग है। वे हर कंटेंट के अर्थ का निर्णायक नहीं बन सकते। इसलिए वे प्रक्रियाएँ बनाते हैं—यूज़र रिपोर्टिंग, कंटेंट फ़्लैगिंग, एज-गेटिंग, और कुछ मामलों में आर्टिस्ट/लेबल से एडिट या डिस्क्लेमर की मांग। इस केस में भी अगर अदालत से निर्देश आते हैं, तो प्लेटफॉर्म्स को वैधानिक रूप से कदम उठाने होंगे।

गुरु रंधावा की टीम की ओर से इस विवाद पर अब तक कोई विस्तृत सार्वजनिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है। अक्सर ऐसे मामलों में आर्टिस्ट स्पष्टीकरण जारी करते हैं—वे कहते हैं कि इरादा अपमान का नहीं था, बोल रूपक हैं, और किसी समुदाय की परंपरा को ठेस पहुंचाना मकसद नहीं। अदालत में भी यही तर्क रखे जा सकते हैं। वहीं शिकायतकर्ता पक्ष इस बात पर जोर देगा कि बोल का असर वास्तविक है—और असर ही असली कसौटी है।

समाज के स्तर पर यह बहस जरूरी है। क्या कोई लोकप्रिय गीत अफीम जैसी चीज़ को सहज बना देता है? या यह सिर्फ कठोर भाषा और लोक कथाओं का इस्तेमाल है? युवाओं तक पहुंचने वाले कंटेंट में ‘कूल’ का लिबाज अक्सर जोखिम छिपा देता है—ब्रांडिंग, विज़ुअल, और शॉर्ट फॉर्म रील्स मिलकर किसी एक लाइन को ‘कैचफ्रेज़’ बना देती हैं। फिर वही लाइन सड़कों, पार्टियों और स्कूल-कॉलेज के गलियारों में गूंजती है।

अब आगे क्या? अदालत सबसे पहले शिकायत की मेरिट देखेगी—क्या prima facie मामला बनता है। इसके बाद पक्षकारों को सुनकर बयान दर्ज होंगे। गीत के आधिकारिक बोल, रिलीज़ टाइमलाइन, मार्केटिंग मैटेरियल और सोशल मीडिया प्रमोशन भी रिकॉर्ड का हिस्सा बन सकते हैं। अगर कोर्ट को लगे कि आपराधिक पहलू है, तो पुलिस जांच का रास्ता खुलेगा। यदि मामला सिर्फ गलतफहमी या संदर्भ की टकराहट पर टिका हुआ दिखा, तो सलाह-मशविरा, चेतावनी, संपादन या कंटेंट एडवाइजरी जैसे समाधान भी सामने आ सकते हैं।

दूसरी तरफ इंडस्ट्री के लिए एक व्यावहारिक रास्ता है—सांस्कृतिक संदर्भ वाले संवेदनशील शब्दों की ‘इंटर्नल स्टाइलबुक’ बनाना। किसी भी विवाद से पहले सवाल—क्या ये लाइन किसी समुदाय की परंपरा को गलत रोशनी में दिखाती है? क्या कोई गैरकानूनी पदार्थ को ‘ग्लैमरस’ बना रही है? क्या इसके लिए एक डिस्क्लेमर जरूरी है?—उठना चाहिए। ऐसे चेकलिस्ट क्रिएटिविटी को रोकते नहीं, बल्कि उसे जिम्मेदार बनाते हैं।

अंत में, यह केस एक बड़े ट्रेंड की नुमाइंदगी करता है। संगीत अब सिर्फ मनोरंजन नहीं—यह सार्वजनिक बातचीत का हिस्सा है। अदालतें उस बातचीत में सीमा तय करती हैं, और कलाकार उसे चुनौती देते रहते हैं। ‘सिर्रा’ का विवाद भी उसी संवाद का नया अध्याय है। 2 सितंबर की तारीख पर सबकी नज़र रहेगी—कानूनी प्रक्रिया प्रारंभिक फिल्टर से गुजरने के बाद किस दिशा में जाती है, यह अगला संकेत देगा।

  • समराला अदालत ने BNSS की प्रक्रिया के तहत नोटिस जारी किया—यह शुरुआती जांच का चरण है।
  • गीत के बोलों पर आपत्ति—‘गुर्ती’ परंपरा से अफीम को जोड़ने का आरोप, ड्रग्स संस्कृति को बढ़ावा देने की दलील।
  • बड़े प्लेटफॉर्म्स भी पक्षकार—डिजिटल प्रसार और कंटेंट मॉडरेशन की जिम्मेदारी पर बहस तेज।
  • उद्योग में पहले भी ऐसे विवाद—हनी सिंह, करण औजला, सिद्धू मूसेवाला जैसे उदाहरण सामने रहे हैं।

फिलहाल इतना तय है कि गुरु रंधावा समन वाला यह मामला आर्टिस्टिक फ्रीडम और सामाजिक संवेदनशीलता के बीच खिंची रेखा को फिर से परिभाषित करेगा—और शायद इंडस्ट्री में कंटेंट रिव्यू के नए मानक भी तय करवाए।

12 टिप्पणि

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    Jaya Savannah

    सितंबर 1, 2025 AT 16:52
    ये गाना तो सुना ही नहीं पर अफीम का जिक्र हुआ तो अदालत तक पहुंच गया 😂 अब अगर किसी ने 'मिठाई' कही तो क्या कानून लगेगा? 🤭 #गुर्तीमेंचीनीहैपरअफीमनहीं
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    Sandhya Agrawal

    सितंबर 2, 2025 AT 07:21
    ये सब एक नाटक है। लोगों को डराने के लिए बनाया गया है। किसी ने अफीम खाई तो कौन जानता है? लेकिन अगर ये गाना गाया जाता है तो सब कुछ बदल जाता है। ये अंधविश्वास है।
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    Amar Yasser

    सितंबर 3, 2025 AT 22:03
    अगर गाने में अफीम का जिक्र है तो उसे रोकने की जगह इसे समझने की कोशिश करें। शायद ये एक जीवन की कहानी है, न कि एक बहाना। हम सब इतने डरे हुए क्यों हैं? 🤗
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    Steven Gill

    सितंबर 4, 2025 AT 10:54
    कला तो हमेशा से अलग चीज़ों को दिखाती रही है। लेकिन अब हम इसे बुरा मान रहे हैं क्योंकि ये बड़ा हो गया है। अगर कोई बच्चा ये गाना सुनता है तो क्या वो अफीम खाने लगेगा? या वो सोचेगा कि इंसान कैसे जीता है? संदर्भ बहुत ज़रूरी है।
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    Saurabh Shrivastav

    सितंबर 6, 2025 AT 06:00
    अब तो हर गाने पर कोर्ट चल रहा है। अगर ये चलता रहा तो अगला कदम क्या होगा? गाने में 'पानी' कहा तो जल निकासी का मामला? अफीम की बात तो सिर्फ एक शब्द है, लेकिन लोग इसे एक धर्म बना रहे हैं।
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    Prince Chukwu

    सितंबर 6, 2025 AT 19:19
    भाई, ये गाना तो पंजाब की ज़मीन से उगा हुआ है! जहाँ जीवन कठिन है, वहाँ कला भी कठोर होती है। गुर्ती तो पवित्र है, लेकिन गाना नहीं उसका विरोध कर रहा, बल्कि एक जीवन का अलग पहलू दिखा रहा है। जैसे बारिश के बाद की धूल का खुशबूदार अनुभव - वो भी गंदा है, लेकिन ज़िंदगी है। 🌧️🔥
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    Divya Johari

    सितंबर 8, 2025 AT 08:00
    इस प्रकरण में कलात्मक अभिव्यक्ति के नाम पर सामाजिक नैतिकता का उल्लंघन हुआ है। नवजात शिशु के लिए अफीम के सेवन का कोई भी सांस्कृतिक आधार नहीं है। इस प्रकार की अवधारणाओं को निरंतरता से अपमानित करना सामाजिक दायित्व का उल्लंघन है।
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    Aniket sharma

    सितंबर 9, 2025 AT 02:14
    इस तरह के मामलों में बातचीत ज़रूरी है, लेकिन डर नहीं। हम अपने बच्चों को गाने से सिखाएं कि कला अलग-अलग तरीके से बोलती है। एक बोल को लेकर अदालत में जाना नहीं, बल्कि घर पर बात करना चाहिए।
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    Unnati Chaudhary

    सितंबर 10, 2025 AT 01:26
    मैंने ये गाना सुना है... और जब वो लाइन आती है, तो मुझे लगता है जैसे कोई अपनी बचपन की यादें बाँट रहा हो। अफीम का जिक्र नहीं, बल्कि उस ज़माने का दर्द है। इंसान का दर्द बोल नहीं सकता, तो गाना बोल जाता है। ❤️
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    Sreeanta Chakraborty

    सितंबर 11, 2025 AT 23:08
    ये सब विदेशी शक्तियों की साजिश है। वो हमारी संस्कृति को बिगाड़ना चाहते हैं। गुर्ती एक पवित्र परंपरा है, और इसे गलत तरीके से दिखाना हमारे धर्म के खिलाफ है। अदालत को इसे गंभीरता से लेना चाहिए।
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    Vijendra Tripathi

    सितंबर 13, 2025 AT 16:59
    सुनो, इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। गाना गाया गया, लोग सुने, एक लाइन पर उठा दिया गया। लेकिन अगर ये बात बड़ी हो गई तो अब हमें इसे सीखना होगा। अगली बार कोई गाना बनाए तो पहले एक छोटा सा सांस्कृतिक चेकलिस्ट बना ले। बस। कोई बड़ा ड्रामा नहीं।
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    ankit singh

    सितंबर 14, 2025 AT 05:38
    गुरु रंधावा के गाने में अफीम का जिक्र है और ये बात बड़ी हो गई। लेकिन अगर कोई गाना बोले कि मैं बारिश में नहाऊंगा तो क्या वो भी बीमारी का कारण बन जाएगा? ये सिर्फ एक रूपक है। इसे लेकर अदालत में जाने की जरूरत नहीं।